शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

उफ! ये गरमी

जहां देखो लोग गरमी का रोना रो रहे है। हर आदमी परेशान है। जहां देखों वहां बस गरमी की ही चर्चा है। क्या रेडियो, क्या टीवी, क्या अखबार हर जगह यही बात हो रही है की इस बार बहुत गरमी हो रही है। टीवी पत्रकार तो सड़को पर लोगों को रोक रोक कर पूछ रहे है-भाईसाहब, बहुत गरमी है? आपको कैसा लग रहा है? अब भले आदमी, गरमी है तो हर किसी को गरमी ही लगेगी न, आपके पूछने से सर्दी तो नहीं लगने लगेगी। पर वे भी क्या करें, उनका अपना चैनल है जिसे उन्हें चौबीसों घंटे चलाना है। मजबूरी है। गरमी पहले भी होती थी, पर इतनी नहीं होती थी। टीवी थे नहीं जो पल पल चढ़ते पारे की सूचना दें। इसलिए गरमी का अहसास भी कम था।

बचपन में हमें हर बच्चे की तरह गरमी की छुट्टियां का इंतजार रहता था। हमारे स्कूल २० मई को बंद होते थे। यानी भद्दर गरमी में। लेकिन छुट्टियों में क्या करना है इसकी योजनाएं काफी पहले से बनने लगती थीं। पापा कैरम, इंजीनियरिंग सेट और बिजनेस जैसे खेल हम लोगों के लिए लाते थे, ताकि हम लोग दोपहर में धूप में न घूमें। पर ये खेल हमें ज्यादा देर तक बाँध नहीं पाते थे। हमें तो दोपहर में पतंग उड़ाना पसंद था। पतंग खरीदने के पैसे हमें कम ही मिलते थे। इसलीए हम अपनी कापी से पन्ने फाड़ कर उसको दोनों तरफ से करीब एक या डेढ़ इंच मोड़ लेते कन्ने बाँधने के लिए और फिर उसको बीचो-बीच से मोड़ देते ताकि उसमें हवा भर सके और वह अच्छी उड़े। दोपहर में छत पर जाने की मनाही थी इसलिए बरामदे के एक कोने में खड़े होकर जहां हवा आती रहती थी, हम पतंग उड़ाते। धागे के तौर पर मम्मी की सिलाई की रील या छत पर फँस गयी पंतगों से लूटी गई सद्दी और माझा काम आता।

कानपुर में हमारा घर गोबिंदपुरी स्टेशन के पास था। हम लोग तीसरी मंजि़ल पर रहते थे। दोपहर में कई बार जब टाइम पास नहीं होता तो बरामदे में चारपाई डालकर बैठ जाते और गाड़ी से उतरते लोगों को आते जाते देखते रहते। गरमी के मौसम में शादियां बहुत होती है और घर अगर स्टेशन के पास हो तो आपको तरह तरह की बरातों को देखना का अवसर मिलता है। कुछ बराते बैलगाडि़यों में होती, कुछ ट्रैक्टरों, तो कुछ खड़खड़ों पर भी दिखाई दे जाती थी। तरह तरह की दुल्हनें और दूल्हें भी उस दौरान देखने को मिलते। दूल्हें तो खैर हल्के-फुल्के वस्त्रों में ही होते, पर दुल्हनों की हालत वास्तव में खस्ता होती। ट्रैक्टर की ट्राली के एक कोने में बैठी दुल्हन लाल या गुलाबी साड़ी में आपादमस्तक ढकी बैठी होती, बगल में बैठे होते घर के कोई बड़े बुजुर्ग और ऊपर से चिलचिलाती धूप तथा लू के थपेड़े। कल्पना कीजिये दुल्हन की क्या हालत होती होगी। कभी कभी दूल्हे दुल्हन उतनी गरमी में पैदल भी दीख जाते। ऐसे जोड़ों को अक्सर हमारे पड़ोसी जिनकी पूरी दुपहर दरवाजे पर बैठे बीतती थी की टीका टिप्पणियों का सामना करना पड़ता। वे उन पर जोर जोर से हँसते। वैसे ऐसी टीका टिप्पणी वे अकेले ही करते हो ऐसा भी नहीं था, स्टेशन से लेकर मुख्य सड़क तक ऐसे कई परिवार थे जिनके मनोरंजन का साधन ये बरातें और बराती हुआ करते थे।

पानी की उन दिनों इतनी परेशानी नहीं थी। पानी दिन के तीनों पहर आता था। जो लोग ऊपर की मंज़िल पर रहते थे, वे शाम को चार पांच बाल्टी पानी छत पर डाल देते और जमीन को उस पानी को सोखने देते ताकि वह ठंडी हो जाये। इसके बाद सोने के एक दो घंटे पहले पतले गद्दे बिछा दिये जाते, जब खा पीकर हम लोग सोने जाते तब तक वे एकदम शीतल हो जाते। रात में पानी पीने के लिए एक सुराही पानी जरूर रखा जाता। उस समय जो तारों भरा आकाश देखा, आज एक सपने सा लगता है। लोग रात में सड़कों पर चारपाईयां डालकर भी सोते थे क्योंकि उस वक्त तक बीएमडब्ल्यू गाड़ियां और बाइकर्स उन्हें कुचलने के लिए शहर में नहीं आये थे।

गरमी की छुट्टियां मिलने जुलने का एक समय हुआ करती थी। जब सभी रिश्तेदार एक जगह इकट्ठे होते थे। एक उत्सव का सा माहौल होता। लेकिन समय की धारा में धीरे धीरे सब कुछ बदल गया। महानगरीय संस्कृति ने हमसे हमारे आंगन और बरामदे छीन लिये, बदले में जो बालकनी दी भी तो इतनी छोटी की चार आदमी भी ठीक से न खड़े हो सके। अब हमारे पास रात में सोने के लिए छतें नहीं हैं जिनके पास हैं भी वे सोते नहीं हैं इससे उनकी शान में बट्टा लगता है। हमें बंद कमरों की आदत हो गयी है। चांदनी रातों की ठंडक का स्थान एसी ने ले लिया है इसलिए बत्ती जाते ही हम छटपटाने लगते हैं। और सरकार को कोसने लगते हैं। लेकिन क्या इन सारी परिस्थितियों के लिए सिर्फ सरकार ही दोषी हैं, हमारा कोई दोष नहीं है। अभी भी वक्त है की हम यह विचार करें की आखिर हमसे कहां चूक हो गयी कि परिस्थितियां इतनी बिगड़ गयी की संभालें नहीं संभल रहीं। सोचिये, मुझे आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा।
-प्रतिभा वाजपेयी

शुक्रवार, 19 जून 2009

एथलीट बकरियां

जादूगोड़ा में सुबह जल्दी होती है। (जादूगोड़ा झाड़खंड राज्य में है और यह यूरेनियम माइन्स के लिए जाना जाता है) सुबह चार बजे सूर्योदय हो जाता है। उस समय बकरियों के झुंड के झुंड आदिवासी बस्ती से आते दिखाई देते है। इस तरह के झुंड मैंने पहले कभी नहीं देखे थे। मुंबई में ईद बकरीद के मौंको पर लोकल ट्रेन से सफऱ करते समय ट्रेन जब कुर्ला से गुजरती थी तो पटरियों के इर्द-गिर्द घूमते बकरे दिख जाते थे। शहर में तो कभी देखने का अवसर नहीं मिला। यहां ये बकरी के झुंड हिरनों के झुंड के समान प्रतीत होते है। इन बकरियों की अपनी विशेषताएं हैं। इन्हें सड़क के किनारे उगी घास पसंद नहीं आती। ये ऑफिसर्स कालोनी के बंगलों के मालियों द्वारा प्रयत्नपूर्वक उगायी गई नर्म मुलायम घास और फूल-पत्ते खाना पसंद करती हैं। इसलिए यहां रहने वालों की एक नजर घर के अंदर तो दूसरी घर के बाहर इन बकरियों पर रहती है ताकि वे उनकी मेहनत से पली पुसी बगिया को न उजाड़ सकें। अब से थोड़े दिन पहसे तक हमारे घर का भी यही हाल था। भाभी की एक आँख किचेन में दूसरी इन बकरियों का पीछा करती रहती थी। इन्हें भगाने के लिए वे समयानुसार कभी डंडे का तो कभी ईंट पत्थरों का इस्तेमाल करती थी। आप सोच रहे होंगे ऐसे कैसे संभव है बंगलों के इर्द-गिर्द तो फैंसिंग होती है। आप बिलकुल ठीक सोच रहे हैं, यहां भी कंटीले तारों की फैंसिंग है। कहीं कहीं तो दीवार भी बनी हुई है। पर इनके लिए ये दीवार कोई मायने नहीं रखती। ये अच्छी खासी एथलीट हैं। अगर किसी ने इन्हें हाई जम्प लगाते न देखा हो तो वह विश्वास नहीं करेगा। जम्प लगाने के लिए वे चार कदम पीछे जाती है फिर दौड़ते हुए आती हैं और उछल कर दीवार पर चढ़ जाती हैं या फैसिंग के उस पार निकल जाती हैं। आप इन्हें अपने बच्चो को इसका अभ्यास कराते हुए भी देख सकते हैं। ऐसा ही एक दिन था जब बकरी ने हमारे गार्डेन में अटैक कर दिया। इस बार वह अकेली नहीं थी उसके साथ उसका परिवार भी था। भाभी और कामवाली दोनों ही लोग अन्हें बाहर निकालने का जुगाड़ करने लगे। भाभी के हाथ में पत्थर था उन्होंने वही फेक कर मार दिया। पत्थर बकरी के पैर पर लगा। भाभी ने कहा, “अब नहीं आयेगी।” भाभी को पत्थर मारते हमारी पड़ोसन ने देख लिया और भाभी को सतर्क करते हुए कहा- भाभी इन बकरियों को मत मारिये। एक बार हमने भी ऐसी भूल की थी। हमने फूलों के नये नये पौधे लगाये और बकरी आकर उन्हें चबाने लगी, हमें बहुत गुस्सा आया और वहीं पास पड़े डंडे से उसके पैर पर जोर से मार दिया। डंडा जोर से उसके पैर पर लगा और वह लगड़ाने लगी। हमने मेन गेट खोल कर उसे घर से बाहर जाने दिया। वह लगड़ाते हुए बाहर निकल गई। अभी बहुत समय नहीं गुजरा था कि हमने लोगों का शोर सुना, शोर कहां से आ रहा है यह जानने के लिए हम अपने घर से बाहर आये तो देखते क्या हैं कि लोग तो हमारे ही दरवाजे पर खड़े हैं। पहले तो हमारी समझ में कुछ नहीं आया कि बात क्या है? ये लोग यहां क्यों आये हैं तभी हमारी नजर लगड़ाती बकरी पर गई। अब हमारा माथा ठनका यानी ये बकरी अपने मालिक को लेकर हमारे यहां आयी है। घायल बकरी का मालिक काफी गुस्से में था और हमारी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहें। न स्वीकारते बन रहा था न नकारते। बकरी एकटक हमारी तरफ देख रही थी और बकरी का मालिक कुछ सुनने को तैयार नहीं था। वह हमसे मुआवजे की मांग कर रहा था। वह एक हजार रुपये की मांग कर रहा था, उसका कहना था उसे बकरी का इलाज करवाना पड़ेगा जिसमें काफी पैसा खर्च होगा। शुरुआती ना नुकुर के बाद, बात पांच सौ पर आकर तय हुई। हमने उन्हें पांच सौ रुपये दिये तब कहीं जाकर वे लोग बकरी को लेकर हमारे यहां से टले। वो दिन है और आज का दिन हमने पौधे लगाना ही बंद कर दिया है।

उनकी राम कहानी सुनने के बाद भाभी को महसूस हुआ कि बकरी के पीछे डंडा लेकर घूमने से अच्छा है कि कोई और उपाय अपनाया जाये जिससे पेड़ पौधे भी सुरक्षित रहे और ऐसा कोई बवाल भी न हो। उसके बाद हम लोगों ने निश्चय किया की पिछले दरवाजे से बाग में जाने के रास्ते पर भी एक इतना ऊँचा गेट लगवा दिया जाये जिसे बकरी न फांद सके और हमारी फुलवारी सुरक्षित हो जाये। आज हमारी फुलवारी खूबसूरत फूलों से महक रही है और भाभी की भागमभाग भी बंद हो गई है।
- प्रतिभा वाजपेयी

बुधवार, 3 जून 2009

इस ब्लाग पर आप सभी का स्वागत है। इस ब्लाग में भगवान और भगवान के बंदों का आवाहन करती हूँ। आशीर्वाद दें। नमस्कार।