शुक्रवार, 19 जून 2009

एथलीट बकरियां

जादूगोड़ा में सुबह जल्दी होती है। (जादूगोड़ा झाड़खंड राज्य में है और यह यूरेनियम माइन्स के लिए जाना जाता है) सुबह चार बजे सूर्योदय हो जाता है। उस समय बकरियों के झुंड के झुंड आदिवासी बस्ती से आते दिखाई देते है। इस तरह के झुंड मैंने पहले कभी नहीं देखे थे। मुंबई में ईद बकरीद के मौंको पर लोकल ट्रेन से सफऱ करते समय ट्रेन जब कुर्ला से गुजरती थी तो पटरियों के इर्द-गिर्द घूमते बकरे दिख जाते थे। शहर में तो कभी देखने का अवसर नहीं मिला। यहां ये बकरी के झुंड हिरनों के झुंड के समान प्रतीत होते है। इन बकरियों की अपनी विशेषताएं हैं। इन्हें सड़क के किनारे उगी घास पसंद नहीं आती। ये ऑफिसर्स कालोनी के बंगलों के मालियों द्वारा प्रयत्नपूर्वक उगायी गई नर्म मुलायम घास और फूल-पत्ते खाना पसंद करती हैं। इसलिए यहां रहने वालों की एक नजर घर के अंदर तो दूसरी घर के बाहर इन बकरियों पर रहती है ताकि वे उनकी मेहनत से पली पुसी बगिया को न उजाड़ सकें। अब से थोड़े दिन पहसे तक हमारे घर का भी यही हाल था। भाभी की एक आँख किचेन में दूसरी इन बकरियों का पीछा करती रहती थी। इन्हें भगाने के लिए वे समयानुसार कभी डंडे का तो कभी ईंट पत्थरों का इस्तेमाल करती थी। आप सोच रहे होंगे ऐसे कैसे संभव है बंगलों के इर्द-गिर्द तो फैंसिंग होती है। आप बिलकुल ठीक सोच रहे हैं, यहां भी कंटीले तारों की फैंसिंग है। कहीं कहीं तो दीवार भी बनी हुई है। पर इनके लिए ये दीवार कोई मायने नहीं रखती। ये अच्छी खासी एथलीट हैं। अगर किसी ने इन्हें हाई जम्प लगाते न देखा हो तो वह विश्वास नहीं करेगा। जम्प लगाने के लिए वे चार कदम पीछे जाती है फिर दौड़ते हुए आती हैं और उछल कर दीवार पर चढ़ जाती हैं या फैसिंग के उस पार निकल जाती हैं। आप इन्हें अपने बच्चो को इसका अभ्यास कराते हुए भी देख सकते हैं। ऐसा ही एक दिन था जब बकरी ने हमारे गार्डेन में अटैक कर दिया। इस बार वह अकेली नहीं थी उसके साथ उसका परिवार भी था। भाभी और कामवाली दोनों ही लोग अन्हें बाहर निकालने का जुगाड़ करने लगे। भाभी के हाथ में पत्थर था उन्होंने वही फेक कर मार दिया। पत्थर बकरी के पैर पर लगा। भाभी ने कहा, “अब नहीं आयेगी।” भाभी को पत्थर मारते हमारी पड़ोसन ने देख लिया और भाभी को सतर्क करते हुए कहा- भाभी इन बकरियों को मत मारिये। एक बार हमने भी ऐसी भूल की थी। हमने फूलों के नये नये पौधे लगाये और बकरी आकर उन्हें चबाने लगी, हमें बहुत गुस्सा आया और वहीं पास पड़े डंडे से उसके पैर पर जोर से मार दिया। डंडा जोर से उसके पैर पर लगा और वह लगड़ाने लगी। हमने मेन गेट खोल कर उसे घर से बाहर जाने दिया। वह लगड़ाते हुए बाहर निकल गई। अभी बहुत समय नहीं गुजरा था कि हमने लोगों का शोर सुना, शोर कहां से आ रहा है यह जानने के लिए हम अपने घर से बाहर आये तो देखते क्या हैं कि लोग तो हमारे ही दरवाजे पर खड़े हैं। पहले तो हमारी समझ में कुछ नहीं आया कि बात क्या है? ये लोग यहां क्यों आये हैं तभी हमारी नजर लगड़ाती बकरी पर गई। अब हमारा माथा ठनका यानी ये बकरी अपने मालिक को लेकर हमारे यहां आयी है। घायल बकरी का मालिक काफी गुस्से में था और हमारी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहें। न स्वीकारते बन रहा था न नकारते। बकरी एकटक हमारी तरफ देख रही थी और बकरी का मालिक कुछ सुनने को तैयार नहीं था। वह हमसे मुआवजे की मांग कर रहा था। वह एक हजार रुपये की मांग कर रहा था, उसका कहना था उसे बकरी का इलाज करवाना पड़ेगा जिसमें काफी पैसा खर्च होगा। शुरुआती ना नुकुर के बाद, बात पांच सौ पर आकर तय हुई। हमने उन्हें पांच सौ रुपये दिये तब कहीं जाकर वे लोग बकरी को लेकर हमारे यहां से टले। वो दिन है और आज का दिन हमने पौधे लगाना ही बंद कर दिया है।

उनकी राम कहानी सुनने के बाद भाभी को महसूस हुआ कि बकरी के पीछे डंडा लेकर घूमने से अच्छा है कि कोई और उपाय अपनाया जाये जिससे पेड़ पौधे भी सुरक्षित रहे और ऐसा कोई बवाल भी न हो। उसके बाद हम लोगों ने निश्चय किया की पिछले दरवाजे से बाग में जाने के रास्ते पर भी एक इतना ऊँचा गेट लगवा दिया जाये जिसे बकरी न फांद सके और हमारी फुलवारी सुरक्षित हो जाये। आज हमारी फुलवारी खूबसूरत फूलों से महक रही है और भाभी की भागमभाग भी बंद हो गई है।
- प्रतिभा वाजपेयी

बुधवार, 3 जून 2009

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