जहां देखो लोग गरमी का रोना रो रहे है। हर आदमी परेशान है। जहां देखों वहां बस गरमी की ही चर्चा है। क्या रेडियो, क्या टीवी, क्या अखबार हर जगह यही बात हो रही है की इस बार बहुत गरमी हो रही है। टीवी पत्रकार तो सड़को पर लोगों को रोक रोक कर पूछ रहे है-भाईसाहब, बहुत गरमी है? आपको कैसा लग रहा है? अब भले आदमी, गरमी है तो हर किसी को गरमी ही लगेगी न, आपके पूछने से सर्दी तो नहीं लगने लगेगी। पर वे भी क्या करें, उनका अपना चैनल है जिसे उन्हें चौबीसों घंटे चलाना है। मजबूरी है। गरमी पहले भी होती थी, पर इतनी नहीं होती थी। टीवी थे नहीं जो पल पल चढ़ते पारे की सूचना दें। इसलिए गरमी का अहसास भी कम था।
बचपन में हमें हर बच्चे की तरह गरमी की छुट्टियां का इंतजार रहता था। हमारे स्कूल २० मई को बंद होते थे। यानी भद्दर गरमी में। लेकिन छुट्टियों में क्या करना है इसकी योजनाएं काफी पहले से बनने लगती थीं। पापा कैरम, इंजीनियरिंग सेट और बिजनेस जैसे खेल हम लोगों के लिए लाते थे, ताकि हम लोग दोपहर में धूप में न घूमें। पर ये खेल हमें ज्यादा देर तक बाँध नहीं पाते थे। हमें तो दोपहर में पतंग उड़ाना पसंद था। पतंग खरीदने के पैसे हमें कम ही मिलते थे। इसलीए हम अपनी कापी से पन्ने फाड़ कर उसको दोनों तरफ से करीब एक या डेढ़ इंच मोड़ लेते कन्ने बाँधने के लिए और फिर उसको बीचो-बीच से मोड़ देते ताकि उसमें हवा भर सके और वह अच्छी उड़े। दोपहर में छत पर जाने की मनाही थी इसलिए बरामदे के एक कोने में खड़े होकर जहां हवा आती रहती थी, हम पतंग उड़ाते। धागे के तौर पर मम्मी की सिलाई की रील या छत पर फँस गयी पंतगों से लूटी गई सद्दी और माझा काम आता।
कानपुर में हमारा घर गोबिंदपुरी स्टेशन के पास था। हम लोग तीसरी मंजि़ल पर रहते थे। दोपहर में कई बार जब टाइम पास नहीं होता तो बरामदे में चारपाई डालकर बैठ जाते और गाड़ी से उतरते लोगों को आते जाते देखते रहते। गरमी के मौसम में शादियां बहुत होती है और घर अगर स्टेशन के पास हो तो आपको तरह तरह की बरातों को देखना का अवसर मिलता है। कुछ बराते बैलगाडि़यों में होती, कुछ ट्रैक्टरों, तो कुछ खड़खड़ों पर भी दिखाई दे जाती थी। तरह तरह की दुल्हनें और दूल्हें भी उस दौरान देखने को मिलते। दूल्हें तो खैर हल्के-फुल्के वस्त्रों में ही होते, पर दुल्हनों की हालत वास्तव में खस्ता होती। ट्रैक्टर की ट्राली के एक कोने में बैठी दुल्हन लाल या गुलाबी साड़ी में आपादमस्तक ढकी बैठी होती, बगल में बैठे होते घर के कोई बड़े बुजुर्ग और ऊपर से चिलचिलाती धूप तथा लू के थपेड़े। कल्पना कीजिये दुल्हन की क्या हालत होती होगी। कभी कभी दूल्हे दुल्हन उतनी गरमी में पैदल भी दीख जाते। ऐसे जोड़ों को अक्सर हमारे पड़ोसी जिनकी पूरी दुपहर दरवाजे पर बैठे बीतती थी की टीका टिप्पणियों का सामना करना पड़ता। वे उन पर जोर जोर से हँसते। वैसे ऐसी टीका टिप्पणी वे अकेले ही करते हो ऐसा भी नहीं था, स्टेशन से लेकर मुख्य सड़क तक ऐसे कई परिवार थे जिनके मनोरंजन का साधन ये बरातें और बराती हुआ करते थे।
पानी की उन दिनों इतनी परेशानी नहीं थी। पानी दिन के तीनों पहर आता था। जो लोग ऊपर की मंज़िल पर रहते थे, वे शाम को चार पांच बाल्टी पानी छत पर डाल देते और जमीन को उस पानी को सोखने देते ताकि वह ठंडी हो जाये। इसके बाद सोने के एक दो घंटे पहले पतले गद्दे बिछा दिये जाते, जब खा पीकर हम लोग सोने जाते तब तक वे एकदम शीतल हो जाते। रात में पानी पीने के लिए एक सुराही पानी जरूर रखा जाता। उस समय जो तारों भरा आकाश देखा, आज एक सपने सा लगता है। लोग रात में सड़कों पर चारपाईयां डालकर भी सोते थे क्योंकि उस वक्त तक बीएमडब्ल्यू गाड़ियां और बाइकर्स उन्हें कुचलने के लिए शहर में नहीं आये थे।
गरमी की छुट्टियां मिलने जुलने का एक समय हुआ करती थी। जब सभी रिश्तेदार एक जगह इकट्ठे होते थे। एक उत्सव का सा माहौल होता। लेकिन समय की धारा में धीरे धीरे सब कुछ बदल गया। महानगरीय संस्कृति ने हमसे हमारे आंगन और बरामदे छीन लिये, बदले में जो बालकनी दी भी तो इतनी छोटी की चार आदमी भी ठीक से न खड़े हो सके। अब हमारे पास रात में सोने के लिए छतें नहीं हैं जिनके पास हैं भी वे सोते नहीं हैं इससे उनकी शान में बट्टा लगता है। हमें बंद कमरों की आदत हो गयी है। चांदनी रातों की ठंडक का स्थान एसी ने ले लिया है इसलिए बत्ती जाते ही हम छटपटाने लगते हैं। और सरकार को कोसने लगते हैं। लेकिन क्या इन सारी परिस्थितियों के लिए सिर्फ सरकार ही दोषी हैं, हमारा कोई दोष नहीं है। अभी भी वक्त है की हम यह विचार करें की आखिर हमसे कहां चूक हो गयी कि परिस्थितियां इतनी बिगड़ गयी की संभालें नहीं संभल रहीं। सोचिये, मुझे आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा।
-प्रतिभा वाजपेयी
शुक्रवार, 3 जुलाई 2009
उफ! ये गरमी
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अरे, वहां बादल नहीं पहुचे क्या।
जवाब देंहटाएंचिन्ता न करें, अभी फोन करता हूं।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
देर तो हो गई है पर अभी भी लोग चेत जायें तो ठीक!!
जवाब देंहटाएंBlog jagat par aapka swagat hai.
जवाब देंहटाएंसुन्दर। शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंवर्ड वेरिफिकेशन की व्यवस्था हटा दीजिये .
.इससे अनावश्यक समय नष्ट होता है
बचपन
जवाब देंहटाएंकिसी का भी हो
सलोना होता है
मगर यह
वक्त के हाथ
से छूटा
इक खिलौना होता है.......
आप हमें फ़िर इस खिलौने के पास ले गईं-अच्छा लिखा
ऊपर लिखित कविता पूरी व अन्य कविताओं हेतु
http://katha-kavita.blogspot.com/ पर आमन्त्रण है
bahut accha ...swagat hai
जवाब देंहटाएं----- eksacchai { AAWAZ }
http://eksacchai.blogspot.com
आप की बात सही है...अच्छी प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंBahut sahi likha apne..sirf sarkar ko kosne ki bajay ham khud pahal karen.
जवाब देंहटाएंऐतराज़ क्यों ?
जवाब देंहटाएंबड़े अच्छे हों तो बच्चे भी अच्छे ही रहते हैं .
आज कल तो बड़े ऐसे भी हैं कि 'माँ और बहन' कहो तो भी ऐतराज़ कर डालें.
ऐसे लोगों को टोकना निहायत ज़रूरी है . गलती पर खामोश रहना या पक्षपात करना
ही बड़े लोगों को बच्चों से भी गया गुज़रा बनती है .
रचना जी को मां कहने पर
और
दिव्या जी को बहन कहने पर
ऐतराज़ क्यों ?
अगर आप यह नहीं जानना चाहते तो कृप्या निम्न लिंक पर न जाएं।
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2010/12/patriot.html
चूक तो हो गई पर अभी भी लोग चेत जाएँ तो सही है|
जवाब देंहटाएंआप जैसी संवेदनशील प्रतिभा को मुझे अपने सामूहिक ब्लाग में शामिल करके खुशी होगी । आपके आने से महिला मन की कोमल संवेदनाओं को सामने ला सकना मेरे लिए आसान होगा ।
जवाब देंहटाएंeshvani@gmail.com
पर अपनी ईमेल आईडी भेजने की कृपा करें ।
बेहद सुंदर रचना है
जवाब देंहटाएं